पंद्रह वर्ष की पूर्व भी होली के रंग में सराबोर थे लोग जब पता चला कि मुंशी निर्मल सिंह सौ वर्ष की आयु पूरी कर दिवंगत हुए। लोग उनके शव को अंतिम संस्कार के लिए मुंशी जी के गांव छीतरा से तिगरी गंगा तट पर ले गये थे। यहां ऐसा दृश्य था कि सभी लोग रंग में सराबोर थे। सभी ने मुंशी जी का अंतिम संस्कार करने के बाद गंगा नदी में स्नान किया था। बूढ़े जवान तथा किशोर भी उस भीड़ में शामिल थे जो मुंशी जी के स्वर्गवास के बाद बेहद गमगीन थे।
मुझे उस दिन मेरे पूछने पर उनके गांव के एक वृद्ध व्यक्ति ने बताया था कि ऐसे लोग संसार में कभी-कभी अवतरित होते हैं। वृद्ध ने अपनी बात जारी रखी तथा कहा कि उन्हें शिक्षा से बेहद प्यार था। वे अपनी किशोर व्यय से ही इस प्रयास में थे कि लोग शत प्रतिशत शिक्षित हों।
बात सन 1920 की है जब उनकी आयु लगभग 25 वर्ष की थी और हम खेलने कूदने की उम्र में थे। मुंशी जी ने गांव के बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया था। वे किसी से कोई फीस नहीं लेते थे तथा हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं पर समान अधिकार रखते थे। वैसे वे पंजाबी और अंग्रेजी भी लिख पढ़ सकते थे।
तब दूर-दूर तक कालेज तो दूर स्कूल भी नहीं था। यही कारण था कि बछरायूं तथा भगवानपुर के कई युवक जिनमें मुसलिम अधिक थे उनसे उर्दू पढ़ने आने लगे। गांव के बच्चे उनसे पहले ही पढ़ रहे थे। वे अपनी चौपाल पर कभी छप्पर के नीचे और कभी नीम के पेड़ के नीचे पढ़ाते थे।
बाद में देश आजाद होने पर उन्होंने अपनी भूमि पर गांव में ही एक प्राइमरी स्कूल भी खुलवाया। जिसका संचालन बाद में जिला परिषद ने ले लिया। यहां के पहले प्रधानाध्यापक बल्दाना हीरा सिंह निवासी मास्टर यादराम सिंह बने। यादराम सिंह की आयु लगभग 90 वर्ष है और वे सकुशल हैं।
यादराम सिंह जी के अनुसार मुंशी जी ने शिक्षा की लौ उस समय जलाई जब क्षेत्र क्या देश में भी इस दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं हो सकी थी। उन्होंने बताया कि वे भी मुंशी जी से पढ़े थे। उन्होंने कभी किसी छात्र से कोई भी पैसा या किसी तरह की फीस आदि नहीं ली बल्कि कई निर्धन छात्र-छात्राओं की उन्होंने आर्थिक मदद भी की। कई छात्र बाद में उच्च पदों पर पहुंचे।
वह ऐसा दौर था जब गांव तो क्या शहरों में भी इक्का-दुक्का समाचार पत्र आते थे लेकिन उस समय मुंशी जी के पास एक दर्जन पत्र-पत्रिकायें नियमित आती थीं। दिल्ली से प्रकाशित सेवाग्राम, ग्राम युवक, खालसा समाचार (हिन्दी और पंजाबी), सोवियत संघ से युवक दर्पण, सोवियत देश (पंजाबी), सोवियत संघ (हिन्दी), सोवियत लैंड (अंग्रेजी), सोवियत नारी (हिन्दी व पंजाबी) सहित दर्जन भर रुसी पत्र-पत्रिकायें वे मंगाते थे।
इसी के साथ गीता प्रेस की कल्याण मासिक पत्रिका उनके पास लगातार आती रही। जिनकी कई प्रमुख प्रतियां आज भी मुंशी जी के परिवार वालों के पास हैं। इसी से मुंशी जी का शिक्षा के प्रति रुझान का पता चलता है। वे लोगों तथा छात्रों से अखबार पढ़ने को कहते थे। वे कहते थे, पैसे खर्च करने की भी जरुरत नहीं। उनके पास आकर पढ़ लिया करो।
शिक्षा, साहित्य और पुस्तकों से उनको इतना प्रेम था कि उन्होंने ही अपने घर एक काफी बड़ी लाइब्रेरी स्थापित कर ली थी। जिसमें हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, पंजाबी, रसियन, फारसी, संस्कृत और चीनी भाषा की पुस्तकें आज भी मौजूद हैं। इन पुस्तकों में सबसे अधिक संख्या धार्मिक पुस्तकों की है। हिन्दु-मुस्लिम, सिख और ईसाई धर्म से संबंधित पुस्तकें उनके पास मौजूद थीं। जिन्हें वे सभी धर्मों के लोगों को पढ़ने को दिया करते थे। वे सभी धर्मों का समान आदर करते थे। यही कारण था कि सभी धर्मावलंबी उनके पास श्रद्धा और प्यार के साथ पहुंचते थे। उन्हें सभी धर्मों के दर्शन की गहरी जानकारी थी। यह उनके गूढ़ अध्ययन के कारण थी। उनकी बातों को बच्चे, युवा, बूढ़े और महिलायें बहुत ही ध्यान से सुनते थे और उनपर अमल करने का पूरा प्रयास करते थे।
अपनी जेब से खर्च कर वे जो अखबार तथा पुस्तकें मंगाते थे उनसे वे तो लाभान्वित होते ही थे साथ ही लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित कर सभी को लाभान्वित करने का प्रयास करते थे। कभी-कभी लोग कई महत्वपूर्ण पुस्तकों को वापस नहीं करते थे।
बहुत दिन तक दिल्ली के एतिहासिक गुरुद्वारे बंगला साहिब के हेड ग्रंथी रहे ज्ञानी हेम सिंह का कहना है कि उनका परिवार बेहद गरीबी में था। उस समय वे दस वर्ष के थे। मुंशी जी ने उनपर तरस खाया और दिल्ली के एक गुरमत विद्यालय में निशुल्क शास्त्रीय संगीत तथा धार्मिक प्रवचन आदि के लिए दाखिल कराया। ज्ञानी जी का कहना है कि मेरे कपड़े और किराया स्वयं मुंशी जी ने ही दिया था। वे बराबर मेरी कुशल क्षेम पूछने दिल्ली आते रहे। यदि वे मेरी सहायता न करते तो मेरा भविष्य पता नहीं कितना बदतर होता।
इस तरह के लोगों की कमी नहीं जो मुंशी जी के प्रयास से जीवन में सफल रहे। दिल्ली चांदनी चौक स्थित गुरुद्धारा रकाबगंज में स्थित श्री गुरु तेगबहादुर लाइब्रेरी की स्थापना में भी उनकी अहम भूमिका रही। राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक में इस संबंध में सन 1996 में एक लेख भी छपा है।
मुंशी जी ने गजरौला के शिव इंटर कालेज के निर्माण में भी भरपूर सहयोग दिया था। इसका निर्माण स्व. शिव किशोर वैद्य ने किया था। मंडी धनौरा के गांधी इंटर कालेज के निर्माण में भी उन्होंने उल्लेखनीय योगदान दिया। उनके रिश्तेदार मुंशी यादराम सिंह जीवन पर्यन्त इस कालेज के अध्यक्ष रहे। यह कालेज मंडी धनौरा निवासी साहू साहब ने स्थापित कराया था। जेपी नगर के फत्तेहपुर छीतरा में स्थित गुरु नानक जू.हा. स्कूल मुंशी जी द्वारा ही स्थापित है। पहले इस गांव में कोई भी स्कूल नहीं था।
मुंशी जी केवल क्षेत्र ही नहीं पूरे भारत को शिक्षित देखना चाहते थे। आजादी से पूर्व अविभाजित भारत के लाहौर और अमृतसर की वे बराबर यात्रायें करते थे। जहां शिक्षा संबंधी सभाओं में वे स्पष्ठ वक्ता होते थे। उनकी वाकशैली से श्रोता इतने प्रभावित थे कि लोग उनके मंच पर आते ही खुशी व हर्षोल्लास से उछल पड़ते थे।
इस लेख में शिक्षा के क्षेत्र में मुंशी जी के विशिष्ट प्रयास पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। उन्होंने इतना काम किया कि जिसे लिखने में एक पुस्तक तैयार हो जायेगी। उनकी यह विशेषता रही कि उन्होंने कभी भी अपने नाम का प्रचार नहीं किया। जिन संस्थाओं को उन्होंने खड़ा किया उनमें भी अपना नाम नहीं जोड़ा। यह भी एक अविस्मरणीय बात है कि वे दीपावली को जन्में और होली पर हमेशा के लिए आसार संसार से विदा हो गये। हम उन्हें कभी भुला नहीं पायेंगे।
-G S chahal
editor gajraula times
जहाँ वृद्धों का आदर होता है वहीं स्वर्ग है।
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