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मैंने सादाब से पूछा कि उसके अब्बा को पुलिसवालों ने कब तक थाने में रखा। इसपर सादाब का चेहरा लाल हो गया, वह बोला,‘‘कमबख्तों ने बहुत मारा अब्बा को। गालियां दीं, जो जी में आया वह कहा। पुलिसवाले शराब पीते रहे, सिगरेट सुलगाते रहे। अब्बा के बालों को पकड़कर एक सिपाही बोला कि अब खुश है तू। अब्बा के मुंह से खून बह रहा था। उनकी पीठ चमड़े की बेल्ट की चोट से छिल गयी थी। ऐड़ियां सूज गयी थीं और पैर की तलियां खून से लथपथ थीं। ऐड़ी से खून पैर के किनारे होता हुआ अंगूठे के सहारे जमीन पर टपक रहा था। अब्बा बेहोश हो चले थे। पुलिसवालों ने अब्बा की पीठ पर शराब की आधी बोतल उडेल दी। अब्बा तिलमिला उठे। फिर बेहोश हो गये। शायद वह समय कठिन था। कठिन इतना कि सहना मुश्किल था। हम बर्दाश्त करते हैं, लेकिन हर किसी की हद होती है। हद तक उतना खराब नहीं रहता। हद पार होने पर बहुत कुछ बदल जाता है। अब्बा को सड़क किनारे बेहोशी की हालत में फेंक दिया गया। अम्मी बेखबर थी। अब्बा रात में रिकशा चलाते थे। दिन में कुछ घंटे मजदूरी करते थे। परिवर का पेट पालने के लिए क्या नहीं कर रहे थे हमारे अब्बा।’’
सादाब की बातें दिल को झकझोर रही थीं। मैं भावुक हो गया था। सादाब के परिवार को कितना कष्ट हुआ होगा। कष्ट हमें जीवन से रुसबा होने पर विवश कर देते हैं। आंखों के गीलेपन में एक गहराई थी जिसे मैं देख रहा था। फिर कई बूंदें छलकीं जिनसे कुछ तसल्ली मिली। अक्सर घने दर्द के बाद इसी तरह राहत मिलती है। हृदय की वेदना सिमटी रहती है- उसका बाहर आना जरुरी है। पिघलती हुई कोई चीज बूंद बनकर ही तो गिरती है। विचार पिघलते हैं ताकि मन हल्का हो सके, हृदय का भार कम हो सके।
-harminder singh
to be continued........
बहुत अच्छी लगी ये कहानी। आज पिछली कई पोस्ट्स भी पढी। नमन है आपकी कलम को। संवेदनाओं से भरपूर शब्द दिल तक उतर जाते हैं। धन्यवाद
ReplyDeletenice
ReplyDeleteजब तक बूंदे न छलकें तब तक वेदना जाती नहीं है और मन हल्का नहीं होता है।
ReplyDeleteकैदी की डायरी जब मैं लिख रहा था, उस समय कई ऐसे क्षण आये जब मैं भी भावुक हो गया था।
ReplyDeleteमैंने इसे तैयार करने के लिए खुद को काफी हद तक भावुक बना दिया ताकि जब इसे पढ़ा जाये तो असलियत उभरती हुई लगे।
एक कोशिश है यह कैदी की व्यथा को बताने की, एक मामूली कोशिश
धन्यवाद
कानून का खौफ़ दिखाकर पुलिस वाले गरीब की चमड़ी ही उधेड़ते हैं... क्योंकि जब सैंय्या भए कोतवाल तो डर काहे हा... लेकिन हरमिंदर जी आपकी इस कोशिश को मैं सलाम करता हूं.. आपके अल्फ़ाज़ दिल में अंदर तक उतर गये... आप ऐसे ही लिखते रहिए..
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