मैंने खुद को अनेक बार समझाया कि बहुत हो चुका। दूसरों को देखकर मैंने खुद को बदला है। सादाब ने मुझे समझाया और कहा,‘‘तुम मन को बीच में लाते हो। इसलिए हर बार हार जाते हो। तुम सोचते बहुत हो, इसलिए निराश हो जाते हो। मैं कई दिन उदास रहा, अब भी हूं। मगर इससे फायदा कुछ मिला नहीं, सो मुस्कराना पड़ा। कम से कम गम तो कम होंगे। दुखों से जितना बचने की कोशिश करोगे, वे उतना तुम्हें जकड़ेंगे। सही यह है कि उनपर खुशी का मरहम लगाओ।’’
उसकी बातों को मैंने ध्यान से सुना। उनका असर कितना होगा, यह मालूम नहीं। इतना कहना चाहूंगा कि कुछ फर्क तो होगा, शायद धीरे-धीरे ही सही।
लोगों का असर हम पर होता है। हम खुद को बदल भी देते हैं। लेकिन कहीं न कहीं उनकी तरह हो नहीं पाते। कुछ अंतर जरुर रहता है। यह इसलिए ताकि सब एक जैसे न हों। यदि ऐसा होता तो फर्क का मतलब क्या रह जायेगा?
मुझे साफ तौर पर याद नहीं लेकिन सादाब ने इतना बताया कि उसे धोखा दिया गया है। वह चोट खाया है। उसके इस समय के जिम्मेदार उसका कोई अपना है। लेकिन वह बाद में चुप हो गया था। उसका मन भीतर ही भीतर दुखी था। उसकी और मेरी बातें उतनी लंबी नहीं चलतीं। वह कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाता है। ऐसा अक्सर बहुत कम लोग कर पाते हैं।
धोखा इंसान खाता है। उसकी परेशानी वह ही जान सकता है। विश्वास की अहमियत जीवन में बहुत है। रिश्तों की नींव ही भरोसे पर टिकी होती है। एक मामूली दरार रिश्तों को भरभराकर ढहने पर मजबूर कर देती है। तब इंसान केवल मूक-दर्शक की तरह तमाशा देखता है। ऐसी स्थिति में आखिर वह कर भी क्या सकता है? अपने नसीब को खोटा कह सकता है। भगवान को कोस सकता है। वक्त को गाली दे सकता है। कौन रोक सकता है भला उसे ऐसा करने से? कोई भी तो नहीं, कोई नहीं। यहां तक की वह खुद भी नहीं खुद को रोक सकता। मैंने पता नहीं धोखा खाया है, लेकिन कभी-कभी गुस्से में बहुत कुछ ऐसा बोल जाता हूं जिससे दूसरों को लगता है कि मैंने धोखा झेला है।
मेरी आंख लगने को हो रही है। मैं फिर भी लिखे जा रहा हूं। इसका कारण मेरे विचार हैं। लिखना नहीं चाहते हुए लिखता जा रहा हूं। यह अजीब है न कि मैं पहले नींद का इंतजार करता था। आजकल ऐसा होता नहीं।
कोई हमें अपने मित्र की तरह समझता और समझाता हो, तो हम कई प्रकार से सुकून में हैं। कम से कम कुछ पल उसके साथ बिताने को मिल जायेंगे।
जारी है.......
-harminder singh
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