बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Tuesday, November 3, 2009

जीवन अभी हारा नहीं

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‘जिंदगी खत्म होते देर नहीं लगती।’ मैं काकी के सिराहाने बैठा कहने लगा।

  काकी मुस्कराई और बोली,‘जीवन पानी का बुलबुला ही तो है। मामूली तिनके से टकराकर कब नष्ट हो जाये।’

  ‘जीवन की धारा को कोई समझ नहीं पाया। यह पहेली ऐसी है जो कभी न सुलझ पाये। इसके विषय में ऊपरी तौर पर विमर्श करने पर यह नहीं लगता कि इसमें रहस्य छिपे हैं। मगर जीवन इतना गहरा है कि उसकी गहराई के विषय में सोचना मुश्किल है। इंसान जीवन के पानी में गोते लगाता है, किनारे की तलाश करता है। इस छोर को पाने की कोशिश रहती है, कभी उस छोर तक पहुंचने की कल्पना करता है। न छोर मिलता, न किनारा। इंसान केवल गोते लगाता रह जाता है। जीवन संघर्ष में गुजर जाता है।’

  मैंने काकी को झपकी लेते पहली बार देखा। उसकी आंखें बंद हो गयीं। मैंने काकी को जगाया। वह बोली,‘ये नींद भी थक कर आती है। जितना कठिन परिश्रम, उतनी बेहतर नींद। जीवन में उतार-चढ़ाव, कठिनाईयां, मुश्किल रास्ते आते हैं। हम एक के बाद एक बढ़ते हैं। संघर्ष की दास्तान मनुष्य लिखता है। पैरों को घिसकर बहुत कुछ आसान बनता है। शरीर को थकाकर पथरीली राहों में हरियाली उग जाती है। पसीने की खारी बूंदों की कीमत लहू के कतरे से की जा सकती है। उधड़ी शक्लों को पहचानने की जुर्रत जीवन में की है, तो सुन्दरता-शौर्यता को लेकर इंसान जीवन में चला है। रस संसार को रंगीन बनाते हैं। बिना रस के जीवन बेकार है। बुढ़ापे में सारे रस छिन चुके होते हैं- रसहीन जीवन के साथ अंतिम यात्रा की तैयारी। इतना कुछ पाकर भी महसूस होता है जैसे कटोरा खाली रह गया। जीवन का कटोरा भरता नहीं। हाथ पहले खाली था, अब भी खाली है और अलविदा भी खाली हाथ से कहा जायेगा। कपड़ों के दिखावे पर मत जाईये, न ही शरीर के। क्या तन सजावट करके हम अपना शरीर सजा सकते हैं? जितने समय वस्त्रों की जगमगाहट है, उतने वक्त शरीर भी जगमगायेगा। फिर नये वस्त्र धारण करते जायेंगे, लेकिन देह तो पुरानी की पुरानी रहेगी, उसका क्या? वही हडिड्यों का पिंजर जिसपर मांस उभर आया, वही ढांचा जिसपर मांस को खाल की परत छिपाती है।’’

  ‘‘मैं इतना कहती हूं कि इंसान भ्रम का जीवन न जिये। सच्चाई से दो-चार होने में बुराई नहीं। सामना एक दिन होता है। इसलिए मैंने तसल्ली पहले कर ली। अब इस नाजुक समय में इतनी परेशानी नहीं लगती। जिंदगी को जीना सीखना होगा। बुढ़ापे में हताशा होती है। व्यक्ति को समझना चाहिए कि वक्त को काटने का बहाना चाहिए। जीवन को बोझ समझकर खुद को व्यथित करना है। कोशिशें बचपन में ही होती हैं, यह सही नहीं। कोशिशें जीवन में की जाती हैं, यह सही नहीं। कोशिशें बुढ़ापे में भी होती हैं, यह गलत नहीं। बुढ़ापा बिल्कुल बोझिल नहीं। सफर कितना भी मुश्किल क्यों न हो, एक मुस्कराहट उसे आसान बना देती है। जिंदगी का यह अंतिम सफर अबतक के सफर का सार है। शायद अधिक कठिन भी। ऊपर से थकी देह, जो सरक कर चलती है, मगर हारता नहीं है तो हौंसला। हां, बुढ़ापा टिका है हौंसले पर, एक वादे पर कि जीवन अभी हारा नहीं, वह पीछे हटेगा नहीं।’’

-harminder singh

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पापा की प्यारी बेटी

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दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
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ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
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इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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