हमारा देश मध्यकाल में घोर अराजकता का शिकार था। आये दिन विदेशी हमलावर यहां आक्रमण कर जनता को लूट रहे थे और जनता पर घोर अत्याचार कर रहे थे। उस समय कई छोटे-छोटे राज्यों में देश बंटा हुआ था और इन राज्यों के राजा एकजुट होकर आक्रमणकारियों से मोर्चा लेने के बजाय आपस में ही लड़-मर रहे थे।
लोगों का धार्मिक पतन भी हो चुका था। तत्कालीन तथाकथित धर्मगुरु धर्म व देश की रक्षा नहीं कर पा रहे थे।
ऐसे घोर अंधकार, निराशा तथा अशांति के समय में अविभाजित पंजाब के साधो की तलबंडी ( पाकिस्तान) में कार्तिक पूर्णिमा संवत 1526 में श्री गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ।
बालक नानक बचपन से एकान्तसेवी व ध्यानमग्न मुद्रा में रहते थे। उनका इस प्रकार रहना उनके पिता कल्याणराय के लिए चिन्ता का कारण बना हुआ था। एक बार उन्होंने बालक नानक को एक वैद्य को दिखाया लेकिन वैद्य भी उनका ‘रोग’ समझ नहीं पाया।
दस वर्ष की अवस्था में ही बालक नानकदेव ने विद्या अध्ययन पूरा कर लिया था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनका शिक्षक उनसे बहुत प्रभावित हुआ था और यह कहकर उसने उनसे क्षमा मांग ली थी कि यह बच्चा देवपुरुष है जो आने वाले समय में संसार को शिक्षा देगा।
किशोर अवस्था में एक बार नानक देव को उनके पिता ने कुछ सामान लाने उन्हें शहर भेजा। रास्ते में नानक देव को भूखे साधू मिले और उन्होंने सारे पैसे का भोजन उन्हें खिला दिया तथा प्रसन्न मुद्रा में खाली हाथ वापस घर लौट आये। उनके इस कृत्य से पिता कल्याणराय बहुत नाराज हुए थे।
नानक देव ईश्वर भक्त तो थे ही साथ ही अत्यंत कोमल हृदय तथा दीनों पर दया करने वाले भी थे। उनके पिता को केवल नानक की चिंता थी लेकिन नानक को संपूर्ण संसार के लोगों के दुखों की चिंता थी और उन दुखों का अंत करने आये थे।
अपने पिता के तमाम प्रयासों के बावजूद नानक देव सांसारिक मोह में न बंध सके। उन्होंने एक दिन संसार की चारों दिशाओं की यात्रा करने का निश्चय किया और वह बाला व मरदाना नामक आपने दो प्रिय शिष्यों के साथ लोगों को सन्मार्ग पर लाने तथा ईश्वरीय संदेश देने निकल पड़े।
नानक देव ने विरक्त होकर घर नहीं छोड़ा था। उनका विवाह हो चुका था। वह अपने माता-पिता, पत्नि तथा बहन नानकी जी से आज्ञा लेकर और शीघ्र वापस लौटने का आ’वासन देकर घर से निकले थे। वह गृहस्थ जीवन व संन्यासी जीवन को एक साथ जीकर संसार को दिखाना चाहते थे।
अपनी प्रथम यात्रा के दौरान उन्होंने देश की दुर्दशा देखी। उसका वर्णन स्वयं अपनी वाणी में यूं किया है ........
‘कलि काती राजे कसाई धर्म पंख कर उडरिया’
अर्थात: इस कलयुग में राजे ( प्रजापालक के बजाय) कसाई बन गये हैं तथा धर्म पंख लगाकर यहां से गायब हो गये हैं।
जन्म दिवस पर विशेष |
गुरु नानक देव ने अपने सत्तर वर्षीय जीवन में चारों दिशाओं में चार यात्रायें की थीं। इस दौरान उन्होंने भारत के अलावा अफगानिस्तान, श्रीलंका, तिब्बत, मक्का-मदीना, बगदाद आदि देशों की भी पद यात्रा की थी। वह उस समय के लगभग सभी धर्मों के प्रमुख आचार्यों, सन्तों और विद्वानों से मिले थे तथा उनसे ज्ञान चर्चायें की थीं। यात्राओं के दौरान वह अनेक पोंगापंथियों, कर्मकांडियों तथा पाखंडी लोगों से भी मिले थे। गुरु जी ऐसे लोगों को बिना किसी तर्क-वितर्क ही सहज भाव से सीधे मार्ग पर ले आते थे।
गुरु नानक देव हमेशा कमजोर के पक्षधर तथा जोर-जबरदस्ती के विरुद्ध रहे। वह दूसरे का हक मारने के सर्वथा विरोधी थे। वह धनवानों के पकवानों के बजाय खून-पसीने की कमाई से रुखी रोटी खाने वालों के अन्न को महत्व देते थे। एक बार एक शहर में पहुंचे, जहां उनका एक अत्यंत धनवान तथा दूसरा निर्धन शिष्य रहते थे। गुरु जी ने निर्धन के घर रुकना पसंद किया। उसके यहां उन्होंने बड़े चाव से पानी के साथ रुखी रोटियां खायीं। धनवान शिष्य इस पर बड़ा नाराज हुआ तथा उसने गुरु जी से कहा कि उसके यहां अनेक प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन छोड़कर उन्होंने रुखा-सूखा भोजन क्यों किया?
इस बात पर नानक देव अत्यंत सहज भाव से बोले कि इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए वह अपने व निर्धन दोनों के घर से भोजन ले आये। भोजन आने पर गुरुजी ने अनेक लोगों के सामने दोनों हाथों में उन दोनों का खाना अलग-अलग लेकर निचोड़ा तो लोग यह देखकर दंग रह गये कि निर्धन के खाने से दूध तथा धनवान के भोजन से खून की बूंदें टपक पड़ीं। यह देखकर धनवान शिष्य गुरु जी के पैरों पर गिर पड़ा और उसने अपनी सारी सम्पत्ति निर्धनों में बांट दी। उनके जीवन से इस प्रकार की अनेक घटनांए जुड़ी हुयी हैं।
वह जीवनपर्यन्त जहां ईश्वर आराधना व मन की पवित्रता पर जोर देते रहे वहीं तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त जाति-पांति के भेदभाव, छुआछूत, नारी उत्पीड़न, ऊंच-नीच, अंधविश्वास और सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध भी संघर्ष करते रहे। उन्होंने भारतीय समाज के नवनिर्माण में एक जबरदस्त रचनात्मक आन्दोलन छेड़ दिया जिसे उनके बाद नौ गुरुओं ने भी जारी रखा।
गुरु नानक देव अपने उपदेश गाकर सुनाते थे। उनका शिष्य मरदाना शास्त्रीय संगीत का धुरंधर विद्वान था। वह रबाब पर उनकी संगत करता था। गुरु जी द्वारा उच्चारण किये गये 974 सबद हैं जिन्हें 19 रागों में लयबद्ध कर गुरु ग्रंथ साहिब में संग्रहित किया गया है।
स्वर्ग प्रस्थान का समय निकट जानकर गुरु नानक ने अपने द्वारा चलाये आन्दोलन को जारी रखने और लक्ष्य प्राप्ति हेतु अपने एक अत्यंत योग्य शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। गुरु जी का यह प्रिय शिष्य बाद में गुरु अंगद देव के नाम से विख्यात हुआ।
गुरु जी के दो पुत्र बाबा लखमीचन्द और श्रीचन्द थे जो गुरु जी की परीक्षा में विफल रहने के कारण गुरु गद्दी से वंचित रहे। ये दोनों जीवनपर्यन्त ब्रहमचारी रहे और तपस्या करते रहे।
गुरु अंगद देव जी को गुरु गद्दी सौंपकर गुरु नानक देव संवत 1596 में क्वार सुदी 23 को इस असार संसार को छोड़कर सदा के लिए परम सत्ता में विलीन हो गये।
-harminder singh
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