बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Tuesday, May 5, 2009

सीखने की भी चाह होती है

काकी आमतौर पर कम बोलती है। उसका कहना है कि सोच समझकर बोले गए दो शब्द भी मायने रखते हैं। मेरे साथ अनुभव बांट रही एक वृद्धा काफी सहज लग रही है और शायद वह भांप गई है कि वक्त कम है, इसलिए कम समय में सबकुछ बताने की चाह रखती है। काकी की मानसिकता को मैं समझ नहीं पाया, जबकि वह उन रास्तों से पहले ही गुजर चुकी है जो मेरे लिए अभी अनजान हैं।

बुढ़ापा अनुभव बांटता है। इसमें कोई बुराई नहीं कि हम उनसे कुछ सीखें और सीख कर ही तो आगे बढ़ा जाता है। मैंने काकी से एकबार पूछा था कि सीखना क्यों चाहिए? काकी ने तब कहा था,‘ताकि रुके न रह सकें।’ मैं गहन सोच में पड़ गया था।

मामूली बातों को भी गंभीरता से सोचता हूं मैं, फिर काकी का तो एक-एक शब्द कीमती है।

कुछ विराम के बाद काकी ने कहा,‘मैं इतना कहती हूं कि हम चलते रहें। ऐसा होगा तो कई चीजें आसान होंगी। हमारा जीवन सबसे महत्वपूर्ण है, वह बेहतर है तो सब बेहतर है। होना भी यही चाहिए। सीखना और बहुत कुछ सीखना हमारे लिए फायदे वाला है। सीखकर इंसान आगे बढ़ता है और इंसान तरक्की करता है। सोच को विकसित करने का यह आसान तरीका है।’

‘लोगों को लगता है कि बिना सीखे बहुत कुछ पाया जा सकता है। लेकिन ऐसा होता नहीं। हर किसी चीज की चाह होती है। सीखने की भी चाह होती है। हम अनजाने में बहुत कुछ ऐसी बातों को सही समझ लेते हैं जो हमारे जीवन को अंत तक प्रभावित करती हैं। हमारी समझ कितनी है इसका भी पता लग जाता है। एक बेहतर जीवन जीने के लिए व्यक्ति को वह सब चाहिए जो उसके लिए उपयोगी है।’

मैं इतना जानता हूं कि जीवन में हर किसी कार्य को करने की उम्र होती है। बचपन खुलकर हंसने-रोने-सोने और कूद-फांद का होता है। बचपन की सीखें उम्र भर चलती हैं, ऐसा नहीं क्योंकि समय कभी भी करवट ले सकता है। इसे हम परिवर्तन कहते हैं। सीखना हमारी प्रवृत्ति है। इंसान जीवन के प्रारंभ से अंत तक कुछ न कुछ सीखता रहता है। सीखना भी एक कला है और जीना भी। जीकर निपुणता पायी जा सकती है तथा कौशल से सुन्दर जीवन। पर यह सब इतना आसान नहीं। प्रायः अच्छे कार्य सरल नहीं होते। हम जानते हैं कि अच्छे विचार उतनी तीव्रता से ग्रहण नहीं किये जाते, जबकि बुराइयों को समाने में वक्त नहीं लगता। अच्छाई बुराई से दूर रहने की कोशिश करती है, लेकिन बुराई उससे चिपटने की धुन लिए मंडराती फिरती है।

बूढ़ी काकी गंभीर मुद्रा में कहती है,‘अभ्यास करने में क्षमता की आवश्यकता है। बिना अभ्यास के हम बोल भी नहीं सकते या शायद जिंदगी भर चल भी न सकें। क्षमता का विकास समय के साथ होता है, लेकिन हौंसला तो कहीं बाहर से नहीं खरीदा जाता। स्वयं कर सकते हो तो करो, वरना ठगे हुए बैठे रहो। आग को छुओगे नहीं तो पता कैसे चलेगा कि वह जला भी सकती है। पहाड़ पर बिना चढ़े उसकी ऊंचाई का ज्ञान नहीं किया जा सकता। इसी तरह जीवन के पड़ावों को बिना छुए, बिना जाने जीवन नहीं जिया जा सकता। यह सच है और जीवन मृत्यु तक ही सच है, बाद का किसे पता क्या है? फिर सच और झूठ का भेद ही कैसा?’

‘हमने आसपास के वातावरण से बहुत कुछ सीखा है। प्रेरणायें यहीं से प्राप्त हुई हैं। विश्वास यहीं से मिला है। समझ का विकास यहीं से हुआ है। लोग और माहौल जीवन को बेहतर और खराब दोनों बना सकते हैं। प्रभाव किस वस्तु का कितना पड़ेगा यह स्थिति पर निर्भर करता है। स्थितियां समय दर समय बदलती रही हैं। उनमें निरंतरता रही या न रही हो ,मगर उनका प्रभाव था जरुर और भविष्य में कुछ भी हो सकता है।’

-harminder singh

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इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
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कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
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