बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Monday, February 2, 2009

उन्मुक्त होने की चाह

बूढ़ी काकी शायद सोचती बहुत है। मैं उसके गंभीर चेहरे को बारीकी से पढ़ने की कोशिश करता हूं। मैं असमर्थ हूं और उतना अनुभव नहीं कि सिलवटों की गहराई को समझ सकूं। चेहरे पर शंका है, ऐसा भी मुझे लगता है। इसे हम वक्त का तकाजा कहें तो अधिक बेहतर रहेगा।

काकी ने मुझसे कहा,‘तुम किस शंका में हो? शायद मैं कोई रास्ता सुझा सकूं। अक्सर शंकाएं समाधान मांगती हैं। ऐसा करना चाहिये नहीं तो शंका परेशानी को और गहरा कर सकती है। यदि ऐसा हुआ तो उबरने में समय लग सकता है। यह शायद तुम जानते हो कि समय गंवाना आसान नहीं होता, क्योंकि हम एक-एक पल की कीमत चुकाते हैं।’

इतने शब्दों में काकी ने बहुत कुछ कह दिया। मैंने काकी का हाथ छूकर कहा,‘वास्तव में समय बीतता है। ये उंगलियां आराम करना चाहती हैं। चहलकदमी से ये मानो ऊब गयी लगती हैं।’

काकी का स्पर्श पाकर एक अलग एहसास हुआ। हड्डियों पर केवल जर्जर चमड़ी चिपकी थी। हथेली की रेखायें गहराई लिये थीं। नसों ने दामन नहीं छोड़ा था। ऐसा होता भी नहीं क्योंकि वे शरीर के साथ ही समाप्त होती हैं।

काकी कहती है,‘थकी हुई काया है। सबकुछ थका सा लगता है। उम्र का यह पड़ाव सरक कर चलने की आदत डाल देता है। सरकती हुई चीजें अच्छी नहीं लगतीं, लेकिन क्या करें सरकना पड़ता है। बुढ़ापे को ढोना पड़ता है।’

‘वास्तव में मैं शंका में हूं कि मेरा अंत कब आयेगा? कभी-कभी मैं घबरा सी जाती हूं। बेचैनी मानो काटने को दौड़ती है। एक अजीब सा डर है। पता नहीं मौत के बाद भी छुटकारा मिलेगा या नहीं, क्योंकि तब सोचूं क्या पता कि अब क्या? यही उलझन का दौर है, लेकिन भीतर की स्थिति शायद तुम नहीं जान सकते।’

‘इंसान दुखी इसलिये है क्योंकि वह डरा हुआ है। इस दुनिया में हर कोई भयभीत है। जिसे किसी का डर नहीं, यहां तक की भगवान का भी नहीं, वह प्रकृति से घबराता है। होता भी यही है, कुछ अनचाही घटनायें हमें एक पल में झकझोर कर रख देती हैं। सलामती की दुआएं करते रहिए, सुनवाई होगी या नहीं।’ इतना कहकर काकी थोड़े समय के लिये चुप हो गई। उसने मुझसे धीरे से कहा,‘कहीं तुम तो नहीं घबरा रहे?’

मैंने ना में सिर हिलाया। काकी हल्का सा मुस्कराई। फिर उसने कहना शुरु किया,‘तुम मुझे समझ नहीं पाओगे या कई बार मेरी बातें तुम्हें अटपटी लगें, लेकिन यह सच है कि मैं तुम्हें जीवन के वास्तविक पहलुओं से अवगत कराने की कोशिश कर रही हूं। मुझे लगता है कि तुम्हें उतनी ऊब नहीं होगी। मैं कोशिश करुंगी कि तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर अपने अनुभव के साथ दे सकूं।’

जमुहाई लेकर बूढ़ी काकी ने खिड़की की तरफ अपनी कमजोर गर्दन को आराम से घुमाया। उसकी निगाह उतनी नहीं, फिर भी उसने उड़ते पंछियों को ओझल होने तक एकटक निहारा। आसमान गहराई लिये था। काकी का कंबल शरीर को पूरी तरह तो नहीं ढक पा रहा था, लेकिन काकी को इससे किसी प्रकार की परेशानी नहीं थी।

पंछियों को देखकर बूढ़ी काकी शायद यही सोच रही थी कि वह भी इक दिन इसी तरह उन्मुक्त होगी। सब तरह के बंधनों से मुक्त होगी। यह कामना जल्द पूरी होने की आस लगाये थी काकी।

-Harminder Singh

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बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

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कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
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