स्कूल में मैंने सेवाभाव का पाठ पढ़ा था। हमें यह समझाया गया कि सदा परोपकारी बनो। दूसरों की सेवा हमारा ध्येय हो। कईयों के लिये यह महज कोरा उपदेश था, यूं कहें कि कोरी बकवास मात्र था। मैं जानता हूं, कुछ ने सबसे पहले रास्ते से गुजर रहे भिखारी को गाली दी होगी, सिक्के की बात तो दूर। अपने बूढ़े दादा-दादी या नाना-नानी को एक गिलास पानी देने में टाइम खराब हुआ होगा।
दया की भावना को परोपकार से जोड़कर देखा जाता है। भगवान दया करता है, हम दया करते हैं, कहते हैं कि हर कोई कभी न कभी दया करता है। इसके विपरीत भी तो होता है, जब दयावान घृणा का पात्र बनता है। दिखावे की दया को देखना अधिक सहज नहीं लगता। यहां वास्तविक प्रेम अल्प के साथ-साथ नगण्य होता है।
ओम सिंह और जगदेव आज फिर से कक्षा के बाहर खड़े थे। पिछले कुछ सालों से वह महीने-दो महीने में इसी तरह खड़े होते आ रहे थे। ‘‘आज फिर तुम्हारी फीस जमा नहीं हुयी। कल से स्कूल मत आना।’’ यह वाक्य काफी पुराना और घिसापिटा हो चुका था।
निर्धन लोगों की कितनी इज्जत होती है, यह मुझे तब अहसास हुआ। उनके लिये अभिशाप है और ओरों के लिये उनके उपहास का कारण।
फटी जुराबें बिना धुली थीं, जूते भी खस्ताहाल। गले में टाई कई साल पुरानी कहलाने को कतई शर्म महसूस नहीं करती थी, लेकिन उसने कई बार आंसू पोंछे होंगे। यह विद्या देवी का महान स्थल था, जहां शिक्षा अपनी उलझी लटाओं को संवारने की कोशिश तो करती पर पता नहीं क्यों नित्य उलझती जा रही थीं।
ओम सिंह निराश नहीं होता था। जगदेव दिल का भला था। ओम सिंह कई बार चोरी करता पकड़ा गया, उसने अपनी पराजय स्वीकार नहीं की। फिर चोरी की। यह उसकी आदत हो चली थी। पढ़ाई में दोनों सहपाठी शिक्षकों को निराश करते थे। पता नहीं पांचवी तक कैसे पहुंचे। पहले मेरी कक्षा में थे, बाद में मेरे छोटे भाई की कक्षा को भी नहीं पकड़ पाये। यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या था उनके पास रहने को मामूली सा छप्पर और जोतने को कुछ हिस्सा जमीन जिससे उनका पेट भी बमुश्किल ही पल पाता था।
स्कूल वालों ने यह कहा रखा था कि आपसे कुछ फीस अव’य ली जायेगी, लेकिन उनके पास देने को कुछ था ही नहीं। शिक्षा के व्यापारी आदत से मजबूर झूठे दावे करते थे। स्कूल के पास इतनी क्षमता थी कि वह आराम से कई बच्चों की मुफ्त की शिक्षा का भार ढो सकता था।
कई लड़के बस्ता लटकाये खड़े थे। उनके चेहरे उतरे हुये थे। मैं किसी कार्य से प्रिंसिपल कक्ष से गुजर रहा था। उनमें ओम सिंह भी दीवार से सटा खड़ा था। मैंने उससे इसका कारण पूछा, जबकि मैं समझ चुका था। उसका जबाव मायूसी भरा था,‘‘हमें घर जाने को कह रहे हैं।’’
मैंने कहा,‘‘फीस अभी जमा नहीं की।’’
वह चुप था, उसका चेहरा झुक गया। उसके कंधे पर हाथ रखा, यह दया का भाव था, शिक्षा थोड़ा मुस्कायी। उसकी मुस्कान बनावटी नहीं थी।
कई बार ओम सिंह को शिक्षकों के आवेश का शिकार होना पड़ा। वह रोया भी, हाथों से गिरते आंसुओं को पोंछा भी, मगर उसका बेहतर शिक्षा का ख्वाब डाली छोड़ गया। कई साल बाद पता चला कि उसने खेत पर पहले से ज्यादा समय देना शुरु कर दिया। फिर यही तो उसका भविष्य है। अब वह स्कूल नहीं जाता। जगदेव की तो शादी हो चुकी। उसका एक छोटा बच्चा भी है। वह उसे खेत की मेढ़ से स्कूल की आलीशान इमारत दिखाता है। बच्चा खिलखिलाता है, बाप के इशारे की ओर खुशी से उछलकर गोद से कूदकर जाना चाहता है, भरे दिल से रोक लिया जाता है।
-harminder singh
Tuesday, January 20, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
|
हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
|
|
सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
|
|
|
अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
No comments:
Post a Comment