जश्न यूं ही नहीं मनाया जाता। वजह होती है जश्न मनाने की। आजकल हम जल्दी में हैं। इतने काम हैं, फुर्सत ही नहीं, उठने-सोने की भी नहीं। खाना-पीना जैसे-तैसे हो जाता है। यह व्यस्त लोगों की कहानी है, शायद जरुरत से ज्यादा व्यस्त लोग, बिज लोग।
कामयाबी की खुशी मनायी जाती है और जश्न भी। जीतना एक कामयाबी ही तो है, लेकिन एक इंतजार के बाद की कामयाबी और लंबे संघर्ष की।
बच्चे खेले, जीते और हारे मगर एक खुश है, दूसरा दुखी। जीतने की खुशी बचपन से ही शुरु हो जाती है। हार-जीत के पहलुओं को छूने की आदत हर किसी को कई सीखों से अवगत करा देती है। छोटी-छोटी चीजों को इकट्ठा करने के बाद कई बड़ी और अद्भुत चीजें बनती हैं।
खेल फैसले के बिना पूरे नहीं होते। बिना हार-जीत का खेल कैसा? जिंदगी का खेल कम दायरे वाला नहीं। वह कभी न रुकने वाला खेल है। जहां खेल रुका, समझो खिलाड़ी रुका, फिर वह कभी नहीं खेल पायेगा और न देख पायेगा। यह जिंदगी के खेल का अंतिम पन्ना होगा।
अफसोस कि हम अपने में सिमट कर रह गये, जश्न की फुर्सत कहां? जश्न तो खुशियों में मनाये जाते हैं या ऐसे पलों में जो दुर्लभ हैं। आप इतने व्यस्त हैं कि समय नहीं खुद से बात करने का भी। हम उतने खुश भी तो नहीं, जो खुशी से रह सकें। भाग-दौड़ और बस भाग-दौड़। पता नहीं कब ठहरेंगे कुछ पलों के लिये जब केवल हम ही होंगे, बस हम ही।
उम्मीद करें कि ऐसा हो क्योंकि खुद से बातें भी तो करनी चाहिये, नहीं तो खुद का फायदा ही क्या? खुद से बात करने की कोशिश करें, शायद इससे मसला सुलझ जाये।
-harminder singh
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ReplyDelete-mohan das
हरमिन्दर जी, बहुत बढिया आलेख लिखा है।बहुत ही गहरी बात कही है। यह सच है आज भागम भाग कि दुनिया में बहुत कुछ ऐसा भी है जो छूटता जा रहा है जो बहुत जरूरी है।
ReplyDeleteहम कहीं खो से गये हैं और हमें अपने से बात करने की भी फुर्सत नहीं है। शायद यही हमारी जिंदगी बन गयी है।
ReplyDeleteharminder singh