उलझे हुये बोलों को सुनने की कोई गुंजाइश नहीं है। मैं अपने को स्थिति के साम्य करने की कोशिश कर रहा हूं। पल दो पल की मुस्कराहटों का मुझसे क्या लेना देना।
बोलों को लपकने की जरुरत जान नहीं पड़ती। पड़ाव अंतिम अवश्य है, लेकिन थकावट को किनारे लगाने का संघर्ष जारी है। इस संघर्ष का योद्धा और युद्ध का मैदान भी मैं ही हूं। परास्त हो सकूं या विजेता बनने का दंभ भरुं, इसमें संशय या हैरानी किसी मतलब की नहीं।
हार मेरी होनी है, यह मैं जान गया हूं। देर से ही सही, मगर आंखों की पलके उजाले और अंधेरे का फर्क नहीं करतीं।
मुट्ठी बंद करुं या खोलूं क्या फर्क पड़ता है। फर्क की तलाशी भी कोई ले नहीं सकता। सूखे ठूंठ की राख उंगलियों को सहला जाये, यह भी उम्मीद नहीं। सिलवटों को मिटाने की जुगत में रेत मलने से क्या फायदा।
सच से रुबरु अब हुआ हूं। अभी तक कहां जीता रहा?
-HARMINDER SINGH
bhut hi bhavpurn rachana. likhate rhe.
ReplyDeleteबधाई, इतनी अच्छी रचना के लिए, बहुत ही अच्छे तरीके से कहा आपने.
ReplyDeleteयह संसार रचनाओं का भी है और अपनों का भी। यहां भावनायें बोलती हैं, कुछ कहती हैं और धीरे-धीरे बहुत कुछ कह जाती हैं। समझ नहीं आता कि यह दुनिया किस तरह से अपनों को भूल रही है और उन्हें बेगाना करने पर उतारु है।
ReplyDeleteवृद्धग्राम के द्वारा संवेदनाओं को छूकर निकलने की मात्र कोशिश नहीं की जा रही बल्कि उन्हें महसूस भी किया जा रहा है।
धन्यवाद.