बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

LATEST on VRADHGRAM:

Saturday, May 31, 2008

समाज कल्याण और विधवायें

पति तो कब के इस संसार से विदा हो गये। बच्चे अब कहां पूछते हैं? कोई नहीं कहता कि हमसे दो बातें करो। चैबीस घंटे मायूसी घेरे रहती है।

बुढ़ापे की लाचारी बहुत कुछ बयां कर रही है जिसे देखकर हर किसी का मन अंदर से जरुर हिलता है। लेकिन समाज कल्याण विभाग के कर्मचारियों का स्वभाव इतना रुखा और कठोर है कि ये बेचारी वहां कई बार आंखों से आंसू निकालने को मजबूर हो जाती हैं। जमाने की ठोकरे खाने का नसीब लेकर थोड़े ही पैदा हुयी थीं?

अब इनके लिये ऐसा समय आया था जब ये आराम से अपने परिवार में दो रोटी सुख की खा सकें। लेकिन अपनों ने पराया कर दिया। दर-दर की ठोकरें खाने की जैसे अब आदत बन चुकी है।
वृद्धों के लिये सरकार ने बहुत सी योजनायें चला रखी हैं, लेकिन भ्रष्ट अफसरों, दलालों और विचैलियों के कारण उन्हें धेला भी नहीं मिल पाता। अगर मिलता भी है तो उसमें से कमीशन काट लिया जाता है।


समाज कल्याण विभाग के दफ्तर के बाहर हर रोज विधवाओं की कतार लगती है। उनमें अधिकतर ऐसी विधवायें हैं जो काफी वृद्ध हैं तथा गुजर बसर भी मुश्किल से कर पाती हैं। सरकार से विधवाओं के लिये पैसा आता है। समाज कल्याण विभाग से जुड़े कर्मचारी उसमें से काफी रकम डकार जाते हैं। थोड़ा बहुत पैसा इन बेबस और लाचार विधवाओं को मिल पाता है। इनकी आवाज उठाने को कोई तैयार नहीं है क्योंकि इनसे किसी को कोई लाभ नहीं होगा।

कुछ वर्ष पूर्व विधवा पेंशन के लिये गयी एक वृद्ध महिला सुरमन की मौत हो गयी थी। पेंशन के लिये कर्मचारी आना-कानी करते रहे। सुरमन ने समाज कल्याण दफ्तर के कई चक्कर लगाये। पेंशन आज नहीं मिलेगी, अभी पैसा नहीं आया, कुछ दिन बाद आना- ऐसे सैंकड़ों बहाने बनाते रहे। बेचारी इसी तरह महीने में कई दफा दफ्तर आती रही। एक दिन वह वहां से लौटकर सड़क पार कर रही थी। उसकी निगाह भी कम हो चली थी। वह अंदाजा नहीं लगा पायी और एक चलते ट्रक से टकरा गयी। ट्रक का पहिया उसके दोनों पैरों पर उतर गया। अस्पताल में उसने दम तोड़ दिया।

वृद्धों के लिये सरकार ने बहुत सी योजनायें चला रखी हैं, लेकिन भ्रष्ट अफसरों, दलालों और विचैलियों के कारण उन्हें धेला भी नहीं मिल पाता। अगर मिलता भी है तो उसमें से कमीशन काट लिया जाता है।

समाज कल्याण विभाग की जिम्मेदारी होती है समाज का कल्याण करना लेकिन वह अपने कल्याण में ही अधिक व्यस्त है।

एक वृद्ध महिला ने बताया,‘‘मैं यहां कई दिन से लगातार आ रही हूं। कई दिन से कल आना कहकर मेरी जैसी विधवाओं को परेशान किया जा रहा है।’’ यह आमतौर पर होता है। विधवायें आती हैं और सरकारी कर्मचारी उनकी नहीं सुनते।

समाज कल्याण कर्मचारियों के लिये इंसानियत का शायद कोई महत्व रह नहीं गया। दया नाम की कोई चीज तो बिल्कुल नहीं।

विधवाओं के दर्द को लिखा नहीं जा सकता, करीब से कुछ हद तक जाना जा सकता है। बहुत सी वृद्ध महिलायें थक हार कर बैठ गयी हैं। अब उन्हें इस संसार से कुछ नहीं चाहिये, जितने दिन कट जायें बहुत हैं। ऊपर वाले तक जल्द पहुंचने की हसरत के साथ चुपचाप दो हाथ जोड़कर बैठी हैं।

गुरमुख सिंह द्वारा

No comments:

Post a Comment

Blog Widget by LinkWithin
coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



[ghar+se+school.png]
>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

[horam+singh.jpg]
वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
[ARUN+DR.jpg]
वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com