बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Saturday, May 24, 2008

उम्र को जीतते हबीब



उम्रदराज आंखों से निकलती मद्धिम रोशनी ने जीवन की शतकीय पारी में बहुत से उतार चढ़ाव देखे हैं। सफेद झक पलकों के बीच हबीब मियां जिंदगी के कई ऐसे दौरों के गवाह हैं जिन्हें सिर्फ इतिहास के पन्नों से समझा जा सकता है। उम्र के इस पड़ाव के बावजूद तकनीकी कारणों से उनका नाम भले ही गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिर्काड में शामिल नहीं किया गया हो, लेकिन वे खुद सवा सै से भी लंबे समय का जीता जागता दस्तावेज हैं। वे राजशाही के गवाह भी रहे हैं तो भारत में अंगे्रजी हुकूमत और उसके अंत के प्रत्यक्षदर्शी भी।


हबीब मियां ने अपना 139वां जन्मदिन नहीं मनाया। इसका कारण पिछले दिनों हुये जयपुर बम धमाके हैं।

अपने जीवन के बारे में हबीब मियां बताते हैं कि उनके अब्बा कल्लू खां जयपुर के राजा सवाई रामसिंह के दरबार में मुलाजिम थे। वे दरबार में मशक से पानी भरने का काम करते थे।


उम्र के इस पड़ाव पर भी उनके दिलो दिमाग में वे सभी बातें बातरतीब समायी हुयी हैं, जिनसे कभी वह रुबरु हुआ करते थे। अपने जीवन के बारे में हबीब मियां बताते हैं कि उनके अब्बा कल्लू खां जयपुर के राजा सवाई रामसिंह के दरबार में मुलाजिम थे। वे दरबार में मशक से पानी भरने का काम करते थे। खुद हबीब मियां ने जयपुर दरबार की सैन्य टुकड़ी मान गार्ड में अपनी नौकरी के दौरान दो राजाओं का शासन देखा। उन्हें ठीक से वर्ष का पता तो नहीं, पर वे बताते हैं कि जब पहली बार उन्होंने दरबार में नौकरी शुरु की तब महाराजा माधोसिंह द्वितीय गद्दीनशीन थे और जब सेवानिवृत्त हुये तो राजा मानसिंह द्वितीय राज कर रहे थे। मियांजी दरबार के बैंडवादन दल में क्लैरनेट वादक थे, जहां से वे 64 वर्ष की उम्र में वर्ष 1937 में रिटायर हुये।

इस तरह आज पेंशन पाते हुये हबीब मियां को 69 साल हो गये हैं। शुरुआती दौर में उनकी पेंशन महज 1 रुपये 66 पैसे थी, जो सात दशकों के सफर में दो हजार के आंकड़े को पार कर गयी है। पर हबीब मियां इक्कीसवीं सदी में छलंाग लगा चुके जमाने से खुश नजर नहीं आते। उस जमाने के बारे में कुरेदने पर वे यादों में खो जाते हैं और बताते हैं कि उस समय जयपुर की शान निराली थी। सड़कें आज की तरह डामर की तो नहीं थीं, पर खूबसूरती और मजबूती में इससे भी बढ़कर थीं। सफाई के लिये सुबह-शाम सड़कों पर पानी का छिड़काव किया जाता था। आज तो चैड़ा रास्ता है, वहां शेरों के पिंजरे रखे रहते थे और चारदीवारी के बाहरी इलाकों गलता, मोतीडूंगरी, मोहनबाड़ी और घाट की गुणी में शेर-चीतों का आतंक रहता था। वे बताते हैं कि अंधेरा होने के बाद इन इलाकों की तरफ जाने की कोई हिम्मत नहीं करता था।

इतनी लंबी उम्र के बावजूद हबीब मियां की सेहत आज भी काफी अच्छी है, हालांकि आंखों से वे कुछ लाचार अवश्य हो चुके हैं। उस जमाने के बारे में बताते हैं कि आज की बनिस्पत वह पुराना जमाना ही अच्छा था। लोग तहजीब के पाबंद और दीन-ओ-ईमान में बंधे हुये थे। माहौल बहुत ही सौहार्दपूर्ण था तथा हिंदु-मुस्लिम के नाम पर फिरकापरस्ती नहीं हुआ करती थी, बल्कि दोनों कौमें एक पिता की दो संतानों की तरह रहती थीं। गरीब से लेकर अमीर सभी तबकों पर ऐतबार किया करते थे और होली, दीपावली, ईद-बकरीद एवं बारवफात जैसे त्योहारों में हिंदु-मुस्लिम दोनों ही शरीक हुआ करते थे। हुकूमत और रियाया दोनों ही वतनपरस्त थे और जाति, मजहब और भाषाई आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं हुआ करता था। लोग कानून से डरते भी थे तो उसकी इज्जत भी करते थे।

उस दौर के खान-पान के बारे में पूछे जाने पर हबीब मियां भावुक हो जाते हैं और अनायस बोल पड़ते हैं,‘‘वाह क्या जमाना था वह भी।’’ वह बताते हैं,‘‘जब मैं बच्चा था तो मेरी जेबें काजू, बादाम और किशमिश से भरी रहती थीं। जिसे मैं यार-दोस्तों के साथ बांटकर खाता था। उस समय एक पैसे में इतनी मिठाई मिल जाती थी कि परिवार वालों के खाने के बाद भी बच जाती थी।’’

मियां जी बताते हैं,‘‘तब भले ही लोगों के पास आज के जितना पैसा नहीं हुआ करता था, लेकिन सस्ताई ज्यादा थी।’’ वह बताते हैं,‘‘तब एक-एक रुपये में आठ सेर तेल, पांच सेर बूरा तथा एक रुपये में दो सेर बादाम मिलते थे। घर में खाने पीने की कोई कमी नहीं थी और आज के पसंदीदा पेय चाय का कोई नामोनिशान नहीं था।’’

आज के दौर की तरक्की से हबीब मियां खुश तो नजर आते हैं, लेकिन सामाजिक ढांचे में बिखराव, नयी पीढ़ी में बुजुर्गों के प्रति बढ़ती बे-अदबी, सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती महंगाई और मजहब के नाम पर खून-खराबे की घटनाओं से वे विचलित नजर आते हैं। रोज नयी-नयी बीमारियों की उत्पत्ति पर हैरानी और खिन्नता जताते हुये वे बताते हैं कि उन्होंने कभी नीम-हकीमों का मुंह नहीं देखा। कुछ याद करते हुये मियां जी बताते हैं कि उनके जमाने में दो बीमारियों गांठ(प्लेग) और लाल बुखार का खौफ जरुर था। पर आज का इंसान एड्स, हैपेटाइटिस जैसी नयी-नयी बीमारियों से जूझने को मजबूर है।

by hari singh

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दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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