बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

LATEST on VRADHGRAM:

Wednesday, May 14, 2008

दो बूढ़ों का मिलन

जब दो उम्रदराज लोग एक साथ बैठ जाते हैं तो बातें होती हैं उन लम्हों की और इन लम्हों की भी। काफी सारी बातें होती हैं। यादों के झरोखे खुल जाते हैं और बहुत ही फुर्सत से बैठे हुये मालूम होते हैं ये।

दो बूढ़ों के मिलन को मैंने नजदीक से देखा और समझा है। उनके पास क्या-क्या होता है कहने को और क्या नहीं। लेकिन कुछ वे कह पाते हैं और कुछ अनकही भी कह जाते हैं अपने भावों से। उनकी बातों में बहुत कुछ बहता है, नीर भी, लेकिन वे ढांढस बंधाये रहते हैं अपना और अपनों का भी।

ये वे थे जो जीवन की खट्टी-मीठी यादों के बीच एक दूसरे से बरसों बाद मिल रहे थे। खुशी थी, चेहरे पर चमक भी, पल-पल खुशगवार रहा होगा उनके लिये। मुस्कान से सलवटों को नया आकार मिल रहा था और वे कभी-कभी किसी बात, तो कभी किसी बात पर बीच-बीच में ठाठे भी मारते थे।


मुंशी भोला सिंह और स. प्रताप महेन्द्र सिंह


दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’


एक के सिर पर पगड़ी थी, केश थे। दूसरे के सिर टोपी थी। बेटी और बेटा इन्हें देखकर गदद थे और उनके बच्चे भी। इस माहौल का हिस्सा मैं भी था।

उनके पास उम्मीदों का एक चिट्ठा था जिसे वे कभी खोलते तो कभी खुद-ब-खुद बंद हो जाता। उठापठक थी, बेचैनी भी और अजब सा साम्य भी। उनमें से एक मुंशी भोला सिंह थे। इनके पिता मुंशी निर्मल सिंह जी अपने जमाने के संत लोगों में से एक थे। उनका व्यवहार अपने छह बेटों में बंट गया। एक बेटी का पति उसे तीन बच्चों की जिम्मेदारी देकर साधु बन गया। आज वे बूढ़ी हो चुकी हैं, लेकिन उनके पुत्र और पुत्रियां धन संपन्न और प्रसन्न हैं।
दूसरे थे रामपुर के छोटे से गांव बंजरिया के रहने वाले। स. प्रताप महेन्द्र सिंह सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी हैं। वे पहले किसान यूनियन के सक्रिय सदस्य भी हुआ करते थे। लेकिन यूनियन की शैली और उसमें कई खराब लोगों के कारण वे उससे दूर हो गये। सज्जन हैं, व्यवहार में भी और अपने दो बेटों और एक बेटी को भी यही सिखाया है। वे आजकल ऊंचा सुनते हैं। बच्चे कहते हैं कि इलाज करा लो। पता नहीं क्यों वे जाते नहीं। बंजरिया से दूर-दूर तक कोई स्कूल नहीं था। इन्होंने स्कूल खोल रखा है। कई बच्चों की फीस नहीं ली जाती क्योंकि वे उन घरों से आते हैं जहां रोटी के लिये बच्चे मांओं से अनुरोध करते हैं, तो उन्हें कुछ सूखे टुकड़ों से बहला दिया जाता है। खुद भूखी ही रह जाती हैं।

गांववालों को खेती नहीं आती थी। महेन्द्र सिंह पहले ज्योतिबाफुले नगर में जिला मुख्यालय अमरोहा से कुछ दूर एक गांव में बसते थे, लेकिन जमीन ज्यादाद बेचकर रामपुर के एक अति पिछड़े गांव में चले गये। गांव वाले आज भी कहते हैं,‘‘ये न आते तो हम खेती कभी न कर पाते।’’

महेन्द्र सिंह और भोला सिंह को पता ही नहीं चलता कब चाय ठंडी हो गयी। वे बातों में मशगूल थे। ये उम्र ही ऐसी होती है जब भावुकता और स्नेह कुलाचें मारता है। मन की बात बाहर निकलती भी उसी तरलता की तरह है और छिपती भी उसी तरह है।

झुर्रियों को देखकर उम्र का अंदाजा लगाया जा सकता है। मुंशी भोला सिंह 85 वर्ष पार कर गये हैं, लेकिन चेहरे पर चमक बरकरार है। महेन्द्र सिंह की कमर उनका साथ नहीं दे रही यद्यपि उनकी और मुंशीजी की उम्र का फासला 5 वर्षों का है। मुंशी जी बड़े हैं महेन्द्र जी से।

तीन बेटे उन्हें स्नेह से रखते हैं या नहीं ये वे किसी से बताते नहीं। उनकी पत्नि का देहांत इसी महीने की शुरुआत में हो गया। उस दिन वे किसी ने पहली बार रोते हुये देखे थे। उनकी आंखें छलक आयी थीं। महेन्द्र जी उनसे पूछते हैं,‘‘बच्चों की दादी की मृत्यु के बाद ही आप पहली बार कहीं आये हैं।’’

वे मुस्करा जाते हैं। अट्ठास करने की अपनी पुरानी आदत को छिपा नहीं पाते। भोला सिंह ने अपनी जवानी में तीतर का शिकार बहुत किया है। ये मेरे हिसाब से क्रूरता है। मैंने उनसे इस विषय में बात की तो वे बोले,‘‘पता नहीं कैसे मैं यह करता रहा। आज मुझे अपने किये पर पछतावा होता है।’’

क्या हम ये कहें कि जवानी के क्रियाकलापों को भोगने के काल को बुढ़ापा कहते हैं?

खैर, दोनों का समय यादों से कट गया। कुछ तेरी याद, कुछ मेरी यादें। इनकी खुशी कैसी थी, और कैसे थे इनके अंर्तमन। समझ नहीं पा रहा कि बुढ़ापे में जर्जरता क्यों आती है? शरीर जबाव क्यों दे जाता है? सब का सब शिथिल पड़ने क्यों लगता है?

बहुत बुरा है या यह अच्छा है अगली दुनिया के लिये। अगला लोक कैसा होगा? क्या वहां भी हम इसी तरह होंगे? ये प्रश्न हैं कि खत्म ही नहीं होते।

बुढ़ों की दुनिया अपनी दुनिया है। उनका जीवन हमारे जीवन से जुदा है, क्योंकि वे अपनी अलग दुनिया के वासी होकर भी हमारे साथ मिलने को उतावले रहते हैं। हमारा साथ उन्हें नहीं मिलता, वे दुखी होते हैं।

बहुत सी बातें गठरी में बांध कर लाये थे दोनों। गठरी खुलती गयी और सिलसिला चलता रहा। बेरोकटोक, लगातार और मजेदार भी।

हरमिन्दर सिंह द्वारा

2 comments:

  1. बहुत साधुवाद. एक अति उम्दा कार्य कर रहे हैं यह सब चिट्ठे पर लाकर.

    गठरी खुलती गयी और सिलसिला चलता रहा।

    -बस, सिलसिला बनाये रखिये.

    ReplyDelete
  2. Achchha prayas hai man chhooti baten andar tak jati hai

    ReplyDelete

Blog Widget by LinkWithin
coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



[ghar+se+school.png]
>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

[horam+singh.jpg]
वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
[ARUN+DR.jpg]
वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com